वास्तु के अनुसार किसी भी भवन का उपयोग करने के लिए उसमें द्वार रखना आवश्यक होता है। सही दिशा में लगा द्वार उस भवन में रहने वालों के जीवन में सुख-समृद्धि एवं सरलता लाता है और इसके विपरीत गलत स्थान पर लगा द्वार जीवन में विभिन्न प्रकार की समस्याएं पैदा कर दुख पहुंचाता है। इसलिए वास्तुशास्त्र में दिशाओं का ध्यान रखना बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।
किसी भी भवन में कहां पर दरवाजा रखना शुभ होगा और कहां रखना अशुभ होगा? कितने दरवाजे रख सकते हैं? इस बारे में वास्तुशास्त्र के पुराने ग्रंथों जैसे वशिष्ठ संहिता, वास्तु प्रदीप, विश्वकर्मा आदि में विस्तृत जानकारी दी गई है। लगभग सभी मानक वास्तु ग्रंथों में आगम व निर्गम द्वार के साथ-साथ दरवाजों की लंबाई, चैड़ाई व ऊंचाई का भी विवरण दिया गया है।
मानक ग्रंथों के अनुसार घर के किसी भी दिशा के मध्य में दरवाजा शुभ नहीं होता है पर मंदिर, होटल, कार्यालय, सार्वजनिक स्थला पर मुख्य द्वार शुभ होता है। भवन के किस भाग में मुख्यद्वार रखने का क्या शुभ अशुभ परिणाम होता है इसके लिये भवन की प्रत्येक दिशा को समान नौ भागों में विभाजित किया गया है। इस विभाजन से कुल बत्तीस भाग बनते हैं। हर भाग का एक देवता प्रतिनिधित्व करता है। प्रत्येक भाग पर द्वार होने पर निम्नलिखित शुभाशुभ परिणाम मिलेंगे।
उपरोक्त सारणी के अनुसार 3, 4, 11, 12, 20, 21, 27, 28 व 29वें भाग में ही द्वार शुभ होता है।
वास्तु में पूर्व द्वार सबसे उत्तम माना जाता है। इसे ‘‘विजय द्वार’’ भी कहते हैं। उत्तरी द्वार भी उत्तम फलदायक माना जाता है। इसे ‘‘कुबेर द्वार’’ भी कहा जाता है। अतः मकान का प्रवेश द्वार पूर्व, उत्तर या उत्तर-पूर्व (ईशान) में होना चाहिये। पश्चिमी द्वार मध्यम फलदायक और इसे ‘मकर द्वार’ भी कहा जाता है। जहां तक संभव हो दक्षिणी द्वार बनाने से बचना चाहिये। चारों कोणों के द्वार के फल निम्न हैं:
उत्तर-पूर्वी (ईशान) द्वार ऐश्वर्य, लाभ, वंश वृद्धि एवं मेधावी संतान देने वाला होता है। अतः यह अत्यंत शुभ माना जाता है।
दक्षिण-पूर्वी (आग्नेय) द्वार स्त्री रोग, अग्नि भय तथा आत्मघात वाला होता है।
दक्षिण-पश्चिम (नैर्ऋत्य) द्वार आकस्मिक मृत्यु, आत्मघात, भूत-प्रेत बाधा तथा व्यावसायिक हानि देने वाला है। अतः इसे अत्यंत ही अशुभ माना जाता है।
उत्तर-पश्चिम (वायव्य) द्वार मानसिक अशांति के साथ धनहानि भी देता है। इसके साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वायव्य दिशा में दरवाजा खोलते समय सदैव पश्चिम, उच्च स्थान के उत्तर-पश्चिम में ही दरवाजा खुलना चाहिए, नहीं तो कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ जाता है।
वास्त क सिद्धांतानुसार भख्डं /मकान में मुख्य प्रवेश द्वार का निर्धारण निम्न दो प्रकार से किया जाता है।
1-उच्च-नीच 2. वास्तु पुरूष अनुसार
पहले प्रकार अर्थात् उच्च-नीच अनुसार चारां दिशाओं को निम्न दो भागों में बांटते हैं- पहले भाग में उत्तर, उत्तर-पूर्व-(ईशान), पूर्व, दक्षिण-पर्वू व उत्तर-पश्चिम म खुलने वाले मुख्य प्रवेश द्वार शुभ तथा उच्च स्थान वाले माने जाते हैं। इसके विपरीत, दूसरे भाग में दक्षिण, पश्चिम, दक्षिण-पश्चिम में खुलने वाले मुख्य पव्र श् द्वार अशभ् तथा नीच स्थान वाले होते हैं। इसमें नीच के दक्षिण-पूर्व व उत्तर-पश्चिम भी अशुभ माने जाते हैं। यह सिद्धांत भूखंड के साथ कमरों के लिए भी उपयोगी है।
वास्तु में यदि भूखंड के चारों कोणों (ईशान, आग्नेय, र्नैत्य व वायव्य) में किसी भी कोण में सड़क हो तो मुख्य द्वार दो वर्गों को छोड़कर बनाना चाहिये। मुख्य द्वार सदैव चैड़ी सड़क की तरफ ही बनाना शुभ रहता है। यदि एक से अधिक विकल्प हो तो दिशाओं के साथ-साथ चैड़ी सड़क व उच्च-नीच सिद्धांत रखकर मुख्य द्वार का निर्माण करवाना शुभ रहता है क्योंकि वास्तु में मुख्य प्रवेश द्वार का काफी महत्व है।
भवन निर्माण के समय निवास स्थान के अंदर आने जाने का रास्ता, जहां चित्र में सही के निशान लगे हैं, के अनुसार रखना चाहिए। जहां क्राॅस के निशान हैं उस जगह पर प्रवेश द्वार रखने से जीवन में विभिन्न प्रकार की परेशानियों के साथ-साथ आर्थिक कष्ट भी आते हैं।
ये चारों द्वार, ऐसे द्वार हैं, जिनसे महालक्ष्मी की कामना की जाती है तथा इन्हें 5 साल से अधिक खुले रहने दें तो व्यक्ति को अतिसंपन्न बना देते हैं। यदि इनमें से एक से अधिक बार खोल पायें तो ऐसे मकान/भूखंड शक्तिशाली फल देते हैं बशर्ते कि ये द्वार भूखंड की बाहरी सीमा रेखा पर ही होने चाहिये। लेकिन साथ में यह भी ध्यान रखना चाहिये कि निर्माण पहले दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम व पश्चिम दिशा में किया जाना चाहिए। ऐसे भूखंड स्वामी को सफल व अत्यंत ऊंची स्थिति में ला देते हैं।
यदि केवल पश्चिमी दिशा में ही निर्माण हो अर्थात् – दक्षिण या दक्षिण-पश्चिम में निर्माण नहीं हो तो घर में महालक्ष्मी का आगमन तो शुरू होगा परंतु गृहस्वामी लक्ष्मी प्राप्ति के अनुरूप सम्मान प्राप्त नहीं कर पायेगा।
यदि दक्षिण व दक्षिण-पश्चिम म सबसे भारी निर्माण कराया जाये तो नेतृत्व व अधिकार भी मिल जाता है। केवल पश्चिम में भारी निर्माण से जो धन आता है, उसमें धन का अपव्यय भी बहुत तेज गति से होता है। यदि बाद की पीढ़ियां वास्तु में परिवर्तन कर दे ता लक्ष्मी भी अपना घर बदल लते
आठों दिशाओं में मुख्य प्रवेश द्वार का निर्माण और प्रभाव
1. ईशान द्वार: भूखंड के इस कोण (उ. पू.) की दिशा का प्रतिनिधित्व बृहस्पति ग्रह के करने से ईशान द्वार को वास्तु शास्त्र में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इससे स्वास्थ्य अच्छा होने से सुख, समृद्धि भी मिलती है। इसमें दोष होने पर उपाय के रूप में गुरु यंत्र की स्थापना करें।
2. पूर्वी द्वार: भूखंड की इस दिशा का प्रतिनिधित्व सूर्य ग्रह के करने से इसमें मुख्य द्वार बनाना श्रेष्ठ माना जाता है। इससे धन व वंश वृद्धि होती है तथा जातक निरोगी रहता है। इसमें यदि दोष हो तो सूर्य यंत्र की स्थापना कर उपाय करें।
3. आग्नेय द्वार: भख्डं क इस काण् (द.-पू.) की दिशा का प्रतिनिधित्व शुक्र ग्रह करता है जिससे इस दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार बनवाने से सदैव अग्नि का भय रहता है। अतः इस दिशा में उपाय के रूप में शुक्र यंत्र स्थापित करें।
4. दक्षिणी द्वार: भूखंड की यह दिशा यम (काल) का प्रतिनिधित्व करती है। अतः इस दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार बनवाना श्रेष्ठ नहीं होता है। अतः उपाय के रूप में मंगल यंत्र स्थापित करना शुभ रहता है।
5. नैर्ऋत्य द्वार: इस कोण में प्रवेश द्वार बनवाने से रोग, कष्ट व धन हानि होती है। अतः उपाय के रूप में राहु यंत्र की स्थापना करें।
6. पश्चिमी द्वार: इस दिशा में मुख्य द्वार होने से आमतौर से कष्टों में वृद्धि तथा दुःख मिलता है। अतः उपाय के रूप में शनि यंत्र स्थापित करना शुभ रहता है।
7. वायव्य द्वार: इस कोण में मुख्य प्रवेश द्वार बनवाना सामान्य श्रेणी अर्थात् मध्यम रहता है। यदि उपाय करना चाहें तो चंद्र यंत्र स्थापित करना चाहिये।
8. उत्तरी द्वार: इस दिशा में मुख्य द्वार बनवाने से सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य, धन आदि की प्राप्ति होती है। जैसे दक्षिणी दिशा आपकी अशुभ है तो इसके ठीक सामने उत्तरी दिशा कुबेर की मानी जाती है। उत्तर धन-लक्ष्मी की दिशा है और लाभ के लिये बुध के साथ कुबेर व लक्ष्मी यंत्र की इस दिशा में स्थापना करें।
मुख्य प्रवेश ‘‘द्वार वेध’’ प्रभाव, सुझाव: यदि द्वार की माप शास्त्रोक्त न हो या नाप में कम हो या फिर द्वार आधा खंडित हो अथवा द्वार के सामने हैं। कुछ वेध द्वार के फल निम्न हैं-
1- यदि द्वार के सामने पेड़ हो या यंत्र से विद्ध हो तो धन का नाश करने वाला होता है।
2- यदि वृक्ष से वेध हो तो बालकों (संतान) को कष्ट होता है। यह वेध, वृक्ष की लंबाई से दुगुनी दूरी तक होता है।
3- किसी भी मार्ग का अंतिम भूखंड या ऐसा भूखंड जो किसी अन्य मार्ग द्वारा वेधित हो या साधारण भाषा में कहें तो ‘ज्श् पर पड़ रहा हो तो जीवन संघर्षपूर्ण होता है। इसे वीथीशूल भी कहते हैं।
4- मुख्य द्वार के सामने सीधा रास्ता अर्थात ‘ज्श् नहीं हो तो यह गृहस्वामी के लिए अशुभ होता है।
5- घर का मुख्य द्वार रास्ते से विद्ध हो अर्थात् यदि रास्ता भवन के मुख्य द्वार पर समाप्त हो तो गृहस्वामी को कष्ट, संतान को तकलीफ होती है। आकस्मिक दुर्घटना योग बनता है।
6- यदि द्वार के सामने बीचों-बीच खंभा हो तो स्त्रियों में चारित्रिक दोष आ जाता है।
7- यदि दरवाजे के सामने लगातार पानी बहता रहे तो गृहस्वामी का अपव्यय होता है।
8- यदि कीचड़ या नाला हो तो रोगों की उत्पत्ति के अलावा घर के सदस्यों में आपसी मनमुटाव व खींचतान होती है। सब अपने-अपने स्वभाववश स्वतंत्र रूप से बिना एक-दूसरे की सलाह से काम करते हैं। शोक भी हाते
9- द्वार के सामने कुआं या हैंडपंप हो तो मिरगी के दौरे या पागलपन रोग होता है।
10- यदि घर के द्वार के सामने मंदिर का द्वार पड़ता हो तो विनाश होता है।
11- विष्णु, सूर्य व शिव मंदिर के सामने घर का होना अशुभ है।
12- द्वार अपन आप खलु जाए ता उन्माद या मतिभ्रम और अपने आप बंद हो जाये तो कोई अनिष्ट जैसे कुलनाशक होता है तथा दोनों ही स्थिति में स्वतः बंद हो या खुले तो भावी संतति पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
13- यदि दरवाजा अदंर की तरफ लटका हो तो गृहस्वामी के अरिष्ट का और यदि बाहर की ओर लटका हो तो निरंतर विदेश प्रवास करवाता है।
14- यदि पव्र श द्वार जमीन स रगड खाता हुआ खुले या बंद हो तो बहुत कष्ट के बाद धन आगमन होता है।
15- यदि प्रवेश द्वार प्रमाण से ऊंचा हो तो रोग, राजभय व सरकारी विभाग से परेशानी होती है।
16- प्रमाण से छोटा द्वार हो तो धन हानि, दुख, घर की वस्तुएं चोरी चले जाने का भय रहता है।
17- यदि प्रवेश द्वार दोनों समान मोटाई के नहीं हों अर्थात् एक कपाट (पल्ला) पतला व दूसरा मोटा हो तो घर में किसी भी सदस्य को भूख पीड़ा व डी-हाइड्रेशन (पानी की कमी) तथा रक्ताल्पता (खून की कमी) हो जाती है।
18- यदि द्वार के पिलर छोटे-बड़े हो जाएं तो शुभ फल को रोक देते हैं। जैसे- सगाई टूटना, शादी में विलंब आदि।
19- यदि पिलर में दरार पड़े या जोड़ खुले तो दांपत्य जीवन कष्टमय होता है।
20- यदि द्वार में जोड़ हो तो गृहस्वामी को दुख, कष्ट, पीड़ा देता है। द्वार में छिद्र अशुभ है।
21- प्रवेश द्वार ऊपर द्वार अमगंलकारी होता है तथा इसे’’ यमराज का मुख’’ कहते हैं यदि नीचे हो तो भी दुखद रहता है।
22- यदि द्वार के ऊपर द्वार बनवाना पड़े तो ऊपर का द्वार नीचे से छोटा हो।
23- नीचे के द्वार से ऊपर का द्वार द्वादशांश छोटा होना चाहिये। इसी तरह नीचे के महल से ऊपर के महल की ऊंचाई द्वादशांश कम होनी चाहिए। द्वार के ऊपर द्वार व द्वार के सामने द्वार अर्थात् आमने-सामने अशुभ होते हैं तथा धन का अपव्यय करने वाले एवं दरिद्रता कारक होते हैं।
24- घर के मध्य भाग में द्वार बनाने पर कुलनाश, धन-धान्य नाश, स्त्री के लिए दोष व लड़ाई-झगड़ा होता है तथा अनेक शोक व दुखद फल प्राप्त होते हैं।
25- जिस घर के आगे और पीछे की दोनों दीवारों के दरवाजे आपस में विद्ध होते हैं, वह गृहस्वामी के लिये अशुभ, दुखद रहता है। वहां स्थापित किसी भी वस्तु की वृद्धि नहीं होती है।
26- चैखट एक तरफ छोटी व दूसरी तरफ बड़ी हो या अनुपात में न हो तथा द्वार टेढ़ा या खंडित हो तो अशुभ है।
27 कोठी या भूखंड वाले मकान के प्रवेश द्वार के ठीक सामने दूसरे का प्रवेश द्वार वेध है। धन-धान्य का विनाश होता है। परंतु फ्लैट्स में एक का मुख्य द्वार, दूसरे फ्लैट्स के मुख्य द्वार के सामने होना द्वार वेध नहीं माना जाता।
28- मुख्य प्रवेश द्वार को अधिक बड़ा नहीं बनवाना चाहिये लेकिन इसे घर के कमरों के अन्य द्वारों से अवश्य बड़ा बनाना शुभ रहता है। मुख्य प्रवेश द्वार ऐसा होना चाहिए कि इसकी उंचाई, द्वार की चैड़ाई से दुगुनी हो। ऐसा द्वार ‘‘मुख्य आदर्श प्रवेश द्वार’’ कहलाता है। यदि संभव हो तो मुख्य द्वार की चैड़ाई 4 फीट से कम न रखें तथा ऊंचाई 8 फीट शुभ रहेगी।
29- बहुत छोटे या संकरे प्रवेश द्वार हों तो परिवार के सदस्यों में मानसिक तनाव देता है।
30- दरवाजा खोलते या बंद करते समय किसी भी दरवाजे का आवाज करना अशुभ रहता है।
31- घर के सभी द्वार दो पल्ले (कपाट) वाले हां। यदि सभी द्वार ऐसे न बनाये जा सकें तो कम से कम मुख्य प्रवेश द्वार, पूजन व मुख्य शयन कक्ष के द्वार अवश्य दो पल्ले वाले होना शुभ है।
32- मंदिर होने से गृहस्वामी का अनिष्ट और बालकों को दुख होता है।
33- श्मशान हो तो पिशाच भय होता है।
34- छाया होने से निर्धनता आती है।
35- गड्ढा हो तो धनहानि, विरोध व कलह होता है।
36- बावड़ी हो तो दरिद्रता, अतिसार, सन्निपात आदि होते हैं।
37- ध्वजा से द्रव्यनाश तथा रोग, दीवार होने से गरीबी तथा चबूतरा होने से अरिष्ट होता है।
38- शिला होने से शत्रुता तथा पथरी रोग होता है।
39- कुम्हार का चक्र हो तो हृदय रोग होता है।
40- ओखली व परदेश वास से निर्धनता होती है।
41- भस्म से बवासीर तथा दीमक की बांबी होने से परदेश गमन, किसी मकान आदि का कोना हो तो दुर्गति तथा मृत्युभय, भट्ठी या आवां हो तो पुत्र नाश होता है।
द्वार की आकृति: मुख्य प्रवेश द्वार व अन्य द्वार को सदैव ‘‘आयताकार’’ रखना ही शुभ होता है। अन्य द्वारों में तिकोना या त्रिकोणात्मक द्वार नारी को पीड़ा, शकटाकार द्वार स्वामी को भय दने वाल, सर्यू क समान द्वार-धन नाशक, धनुषाकार द्वार- कलहकारी नया चर्तुल या वृत्ताकार द्वार अधिक कन्याओं को जन्म देने वाले होते हैं आदि।
1- मुख्य प्रवेश द्वार बाहर की अपेक्षा अंदर खुलना चाहिए, नहीं तो रोग व अस्वस्थता बढ़ जाती है।
2- अगर किवाड़ के जोड़ गडबड़ हो तो गृहस्वामी कई कष्ट झेलता है। पारिवारिक शांति भी भंग हो जाता है।
3- मुख्य प्रवेश द्वार बहुत बड़ा और बहुत ही संकरा/छोटा अशुभ होता है। इसका आकार घर के अनुपात में ही हाने चाहिय जसै कि ऊपर बताया गया है। तुलना में बड़ा द्वार परिवार में मतभेद बढ़ाता है तथा इससे ‘‘ची’’ ऊर्जा भी सीमित होती है।
4- मुख्य प्रवेश द्वार, यदि पीछे का द्वार है, ता इसस आकार म कुछ बडा़ हाने चाहिए अर्थात् पीछे द्वार छोटा होना चाहिये। इससे ‘ची’ ऊर्जा आसानी से घर में प्रवेश कर सके और कुछ देर ठहरे, उसके बाद ही बाहर जाये।
5- भवन के बाहर से देखने पर मुख्य प्रवेश द्वार की स्थिति भवन के बायीं ओर होनी चाहिए ताकि ड्रैगन द्वार की सुरक्षा कर सके।
6- भवन में आगे और पीछे के द्वार ठीक आमने-सामने नहीं होने चाहिए। इससे सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश करने के साथ ही बाहर निकल जायेगी।
7- आगे और पीछे के द्वार के बीच में क्रिस्टल लटकाकर ‘‘ची’’ ऊर्जा को अधिक समय तक के लिये ठहराया जा सकता है।
8- मुख्य प्रवेश द्वार पर घर के मुखिया (गृह स्वामी) की नेम प्लेट लगाना अति शुभ होता है।
9- मुख्य प्रवेश द्वार के आस-पास अंदर या बाहर के भाग में अखबार की र्ददी, कबाड़ या टूटा-फूटा सामान, जूते-चप्पल, झाडू़, डस्टबीन, आदि कम आवश्यक सामान न रखं, इसके रखने से जीवन में प्रगति रूक जाती है।
10- मुख्य प्रवेश द्वार के बाहर स्वास्तिक या रंगोली या छोटे-छोटे पौधे गमले में लगाना शुभ रहता है। कांटे वाले पौंधे न लगायें। स्वास्तिक में अलग गणेश मूर्ति या अन्य शुभ संकेत चिह्न लगाना शुभ रहता है। इससे घर, बुरी नजरों से बचा रहता है। इसके लिये पाकुआ दर्पण का भी उपयोग कर सकते हैं।
11- चूंकि मुख्यप्रवेश द्वार घर का आयना होता है। अतः उसे आकर्षक बनाने के लिये अपनी सृजनात्मक क्षमता का उपयोग करना चाहिए। मुख्य द्वार क पास तुलसी का पौधा वास्तुअनुसार शुभ, उत्तम रहता है।
12- मुख्य द्वार हमेशा चैखट वाला होना चाहिये। आज के वर्तमान दौर में अधिकतर घरों में चैखट की बजाय तीन साइड वाला डोर फ्रेम लगाया जा रहा है। जो कि वास्तुअनुसार शुभ नहीं है। इस वास्तुदोष को दूर करने के लिये लकड़ी की पतली पट्टी या वुडन फ्लोरिंग में इस्तेमाल होने वाली पतली सी वुडन टाइल को मुख्य द्वार पर फर्श क साथ चिपका दने स उपाय हो जाता है।
13- यदि घर का मुख्य, प्रवेश मार्ग, द्वार से छोटा व संकरा है तो यह वास्तुदोष वाली अशुभ स्थिति है। इससे भाग्य व धन में कमी रहेगी। अतः उपाय के रूप में घर के मुख्य प्रवेश मार्ग पर दस गोल घेरे बनाकर उसमें हरी घास लगा दी जाये तो इस दोष का निवारण होकर भाग्य, धन (लक्ष्मी) की बरकत होगी।
14- घर के मुख्य द्वार के ऊपर एक रोशनदान अवश्य लगाना चाहिये, जो सदैव खुला रहे। इसे कांच से बंद भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि यह शिवजी के तीसरे नेत्र की भांति कार्य करता है जो कि पूरे परिवार की उन्नति व खुशी लाता है।